Saturday, December 1, 2012

जग्गा जग्गा की ठोकरियोंन किस्मत जग्गैली,


पहाड़ मा शैहरी देखिक,
नेअथ बिगड़ जांदी,
आपणो की सुध नि च,
बीराणों तै चांदी !  बीराणों तै चांदी !

हंसदा खेलदा घरबार
छोड़ी आ जांदा,
हरीं भरीं पुंगडी पतवाडी,
शहर मा क्या पांदा !

माकन किरायाकू,
बिसैणु भी नि च,
कोठियों माँ धोणु भांडा,
बथैण भी कै मु च !

जग्गा जग्गा की ठोकरियोंन,
किस्मत जग्गैली,
चला पहाडू मेरा भाइयों, 
मिन बाटु खुज्जाली ! गीत - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'





 

Monday, October 15, 2012

देश को बचाना है


है सौगंध तुम्हें भारत माँ की,
इस माटी पर उपकार करो,
लाज बचानी है माँ की अब 
तो संसद के उस पार चलो !

लोकतंत्र की अस्मत का देखो,
कैंसे चीथड़े-चिथड़े कर डाले हैं,
जनसंख्या दिखती नहीं उतनी,
जितने हर शहर में घोटाले हैं ! ....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 



Wednesday, October 10, 2012

फूल को तोड़ लेते

निर्जीव पत्थर को हम , 

देव मानते चले हैं अपना, 

मुस्कराते फूल तोड़ कर, 

रोज करते है एक गुनाह !..........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'


Thursday, October 4, 2012

अगर मैं रूक गयी तो


सोचो मेरे बारे में भी,
मैं थकने लगी हूँ अब,
सदियों से चलते चलते,
अब पाँव मेरे उखड़ने लगे हैं !

तुमने अपने जीवन को,
सरल सहज बना लिया है,
मेरे हर कदम को,
अदृश्य सा बना दिया है !

मेरा नहीं तो कम से कम 
अपना ख्याल कीजिये,
जो पौधे काट रहे हो,
उनको उगा भी दीजिये ! 

मेरा आँचल पौधे ही हैं,
मेरा जीवन है छाया,
लहर चले जब उसके तन की,
तब महके मेरी काया !

मैं महकूँ तो जग महकेगा,
मैं चलूँ तो जग मचलेगा,
मेरी लहर के हर पहलू में,
सब का जीवन चहकेगा .......रचना राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

नोट : आज इन्सान अपने जीवन के लिए प्रकृति का हर प्रकार से दोहन कर रहा है, सब कुछ तो कृत्रिम बन रहा है .........लेकिन कभी इन्सान ने हवा और पानी के बारे में नहीं सोचा, जिन पर पूर्णरूप से जीवन निर्भर है, इस प्रस्थिति को देख कर आज हवा पर कुछ शव्द समिटे है आप सब मित्रों की प्रतिक्रिया मेरे इस शव्दों को आधार दे पायेगी  



Wednesday, October 3, 2012

बापू तुम्हे आज पुकारते हैं


बापू तुम्हे आज वही पुकारते हैं, 
हर चौरह पर तुम्हारे नाम से जो भागते हैं, 
देते है वो दलील हिंद को बचाने की,
मगर तुम्हारे हर अंजाम को लांघते हैं !

खबर नहीं अपने क़दमों की उन्हें,
दुसरे के क़दमों को रोकते हैं,
तुम्हारी दी राह को कर अनदेखा,
गैरों की राह पर देश को झोकते हैं !

लुट कर अस्मत इस देश की 
महल खुद के बनाते हैं,
कुर्सी हर हाल में हो उनकी,
बेटों को भी चुनाव लड़ते हैं !

गिद्ध सा झपटे हैं ये कुर्सी पर,
घोटालों का अम्बर लगते हैं,
ये कैंसी राह है अहिंसा की बापू,
तुम्हारे नाम पर देश को सताते हैं ! रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

Saturday, September 29, 2012

ये खेल निराला है


टांग खिंच कर अपनों की, 
जहाँ ख़ुशी मानते हैं लोग,
दे कर धोखा अपने को ही 
करते चतुराई का उपयोग !

खरीद पोख्त का मायावी,
बढ रहा अब ये कारोबार,
गाँव गरीवों से नोट चुराकर,
करते खुल कर यहाँ व्यापर !

देश धर्म से ऊपर उठ कर,
खुद को कहते पालनहार,
वोट मांगने दर पर पहुंचे,
देखो इनको कितने लाचार !

बन विजयी देखो इनको,
लगते राणा के अवतार,
लुट पाट में गजनी बन बैठे,
भूल गए लोगों का उपकार !

बड़े बड़े महारथी यहाँ,
चोरी का तगमा पहने हैं,
पूती है कालिख हर चहरे पर,
अकेले अकेले ये सहमे है ! -!!!!! रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

नोट: शव्द सारांश 

1. राणा - महाराणा प्रताप 
2. गजनी - मोहमद गजनी 

Monday, September 24, 2012

जन्म का कारण उदासी है


ह्रदय के उदासी आलम से,

कविता का जन्म होता है !

लोग पढ़ वाह वाही करते हैं,

हृदय बादल सा रोता है !

आँखों से निकलता ही नहीं नीर,

और कई पीर एहसासों में बह जाते हैं !

कोई बोलना ही नहीं चाहता मन की,

और शव्द फिर भी कह जाते हैं !

मगर दीखता है किस को ये,

लोग पढ़ कर चले जाते हैं !

शव्द हँसते हैं हमारे हमी पर,

हम को रोज़ चिढाते हैं !  

मन की घुटन कहाँ दफ़न करें अब,

हर रोज़ शव्दों पे चिता लगाते हैं  ! ........ रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 

Wednesday, September 19, 2012

ये जीवन कुछ ऐंसा भी है


विन दर्पण में देखे हम,

जीवन की मांग भरते हैं,

सुइयां घडी की पकड़ के,

सोते हैं और जागते हैं !

यादों में लेके जो चलते हैं हम,

वो कहाँ राहों में हमें मिलते हैं !!!!!!!!! रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
 


Tuesday, September 4, 2012

बथौंउं


फुर्र फुर्र औंदी यु डांडियों कु बथौंउं,

जुकुड़ी मा मेरी कुद्ग्याली लगणु !

घर गौं की खुद यु समुणु लागी,

तिसोली आन्ख्यो की प्यास बुझणु !! ..........गीत राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'  




सांसों का आशियाना


निकले कदम कितने ही आगे,
हाथ कुदरत ने आज भी थामा है !
ये जीवन तब तक चलता है अपना,
जब तक सांसों का इस पर आशियाना है !!.....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 


Saturday, September 1, 2012

सांसों को को देखता ही नहीं

दिल ले गया था कोई कभी 
अब तो जिस्म ही बेजान है !
सांसों को कोई देखता ही नहीं, 
पत्थर भी कहने को यहाँ भगवान  है !! .......रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 

Friday, August 31, 2012

मैं पत्थर ही सही

मैं पत्थर ही सही पर,

पुत्र हिमालय का हूँ !

मुझ पर नजरें लाखों की थी,

मैं तो निशाना कुछ नज़रों का हूँ !

मुझे लूटने कितने आये,

हर एक ने शीश नवाया !

लहू दिया सब ने अपना,

व्यर्थ में जीवन अपना गवाया ! .....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'






Thursday, August 30, 2012

हम मुसाफिर है


न बांध मुझे हृदय की डोरी से,

मैं खुद डोरी से बंध के आया हूँ !

अम्बर में जो उडाता बादल,

समझ ले उसका मैं साया हूँ !! ....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
 









Saturday, August 4, 2012

अँधेरा

कदम खुद ही चलते है 

अँधेरे के निशा ढूंढ़ने !

रोक न पायें जब खुद को,

हम अँधेरे को क्यों  दोष दें !

उजाला हर किसी की ओढनी,   

हम अँधेरे को ही ओढलें !

उजालों ने थकाया हमें 

निगाहों ने लुटाया हमें !

क़दमों ने भी पकड़ी वही राह,

फिर रास्तों को क्यों हम दोष दें !

मुस्कुराता है वो चाँद भी,

अँधेरी ही राह पर,

फिर जगमगाते तारों को,

हम क्यों  दोष दें ! .........रचना  - राजेन्द्र सिंह कुँवर  'फरियादी'






Saturday, July 21, 2012

मुझे आजादी चाहिए


मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''



(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)

Wednesday, July 18, 2012

मेरा पहाडू

न टपकौउ तौं आंसूं तै 
निर्भागी जुकड़ी मा चुभी जांदा 
घंतुलियों मा समाली खुद
दुनिया कै क्यांकू दिखौन्दा
लगली खुद तब ऊं तै जब ठोकर खौला
कपाली खुज्लंदी तब तैमु ओला,
समुण समाल्यी रखी गाड गदनियों तै
सव्द्येउ ल्गाणु रही काफू हिलांस तै
बणु की घस्यरी नि दिखेंदी,
न ग्वारै छोरों की बांसुरी रै
न टपकौउ तौं आंसूं तै
निर्भागी जुकड़ी मा चुभी जांदा
घंतुलियों मा समाली खुद
दुनिया कै क्यांकू दिखौन्दा ........! गीत - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'



Tuesday, July 3, 2012

बनू तो क्या बनू

न पास मेरे धन दौलत है,
न जनमत का भंडार। 
सिमित चंद इरादे हैं, 
जीवन जीने का आधार 
न राही मिला कोई अपना, 
न मंजिल पर दीखता है 
निकलता हूँ जिस गली पे 
हर कोई वहां बिकता है 
फिर बनू तो क्या बनू ........
सपनो के सुनहरे पथ पर,
अपने राह रोके मिलते हैं  
फूल वही मन हर्षाते सबका,
काँटों में जो खिलते हैं 
फिर बनू तो क्या बनू ........
कोयला भी आग में ताप कर,
रंग नहीं बदलता है 
संघर्ष पथ पर जलता सूरज 
यूँ तो हर रोज निकलता है
फिर बनू तो क्या बनू ..... ।  ....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'




Thursday, June 21, 2012

सभ्यता



क्या करें इस सभ्यता का,
इंसानियत को निगले जो जा रही है !
लूट कर सुख चैन, विषाद  का,
दीपक जो जला रही है !
हर ओर घना कोहरा है इसका,
सुख का क्षण कहीं दीखता है क्या .....?
कहाँ इंसानियत मानव के अन्दर,
पग - पग पर देखो विकता है क्या ..?
पानी प्यास मिटा नहीं सकता,
भूख को अनाज लुभा नहीं सकता !
धन दौलत के अम्बार भी देखो,
कुदरती नींद दिला नहीं सकता !
बहती नदियों को सुखा गयी,
अडिंग हिमालय को हिला गयी !
क्या संतोष मिला इस मानव को,
कदम - कदम पे देखो रुला रही !
छोर छुड़ाकर धरती का,
ले उडी मानव को चाँद की ओर !
मानवता को बाँध रही है,
प्रलोभन की ये विषैली डोर ! 
फ़ैल रहा उन्माद धरा पर,
अब रुकने का कहीं नाम नहीं !
मानव के हृदय में अब,
मानवता के लिए दाम नहीं .......... रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 

युग बदल रहा है



राजा चौधरी का गया जमाना,
आज तो नेता अभिनेता का है !
कल फिर किसका होगा यारों,
ये हिंद फिर करवट लेता है !
गाँधी जी को सब भूल गए,
भूल गए झाँसी की ज्वाला को ! 
बीर भगत को भूल गए,
भूल गए राणा के भाले को !
हो संतान तुम भी इसकी,
यही वो भारत माता है !
जब - जब संकट आये हम पर,
तब - तब की अनोखी गाथा है ! 
दैंत्यो का  जब अत्याचार बढा,
राम रूप में अवतार मिला !
गोरों ने चाह जब लूटना,
हिंद को एक नया विस्तार मिला !
असत्य सत्य पर जब था हावी,
हर हिंद वासी था  गंभीर !
कृषण रूप में तारणहार मिला,
उभरी थी एक उज्जवल तस्वीर !
लगता है अब हिंद की,
फिर वही तैयारी है !
जो अत्याचार फैला रहे हैं,
अब उन नेताओं की बरी है ! .........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 




Tuesday, June 19, 2012

हर राह पर पर शिखर हैं

बिखरी पड़ी इन राहों को मैं 
पहचान लेता हूँ !
कभी - कभी चल के दो कदम 
इन से ज्ञान लेता हूँ !
पूरव पशिचमी उत्तर दक्षिण हर ओर शिखर है 
ये जान लेता हूँ !
सब पर चलना आसन नहीं है 
ये मान लेता हूँ !
बिखरी पड़ी इन राहों को मैं 
पहचान लेता हूँ !
कभी - कभी चल के दो कदम 
इन से ज्ञान लेता हूँ !
सागर सी गहराई है, पहाड़ सी परछाई है,
जीवन के इस डगर, मिलती हर कठिनाई है 
मगर मैं ठान लेता हूँ !
बिखरी पड़ी इन राहों को मैं 
पहचान लेता हूँ !
कभी - कभी चल के दो कदम 
इन से ज्ञान लेता हूँ !  ..........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'



Monday, June 18, 2012

देखा देखा देखा

देखा देखा देखा तुम, 
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा
कुड़ी छोड्याली
बन्गिन अपणा
इथ्गा पराया
कन बसी तेरी जुकड़ी मा
अभागी या माया
देखा देखा देखा तुम,
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा
कुड़ी छोड्याली
नानि खूटियों का कदम अब
बडगिन अग्वाड़ी
देखा देखा देखा तुम,
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा 

कुड़ी छोड्याली .........गीत - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'





Friday, June 8, 2012

यखुली यखुली


मन्खियों कु डिमडियाट नि
पोथ्लोउन कु छिबडाट नि
यखुली यखुली तुमारी खुद मा
कन यु विचारू अंगण गुठीयार च
धार खाल्यु मा डांडीयौं का बिच
गाड गदरियों मा पन्देरी नि च
पुंगडी उदास होईं सारियों बिच
कख गै यु मन्खी खबर नि च
दूध की अकाल होईं गौं खालु बजार
दारू देख विक्नू यख बानी बानी की धार
स्कुलु मा मास्टर निन पट्टियों मा पटवारी
शहरु मा घुम्णी छन बौंणु की घस्यारी
बकरोंल्यु भी मगन होऊं च
बखरों छोड़ी ठेका जायुं च
हाथ की लाठी खोय्गी अब
देखा बिचाराकु पवा थामियुं च ...........गीतकार -.राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
 






Tuesday, June 5, 2012

नदी


पर्यावरण दिवस पर सिमटे हुए मेरे कुछ शव्द 


नदी 
न बांध मुझे ये इन्सान,
इस मीट्टी के घरोंदे में !
कब तक रोकेगा मुझे भला 
मैं तो चलने के लिए आई हूँ !
मेरे अपने कुछ राह तकते हैं,
देख मुझे यूँ उनके अश्क छलकते हैं !
जीवन देने आई हूँ मैं,
देख वो कैंसे बिलखते हैं !
आ जाऊं अपने पर यदि मैं 
जड़ से मिटाकर ले जाउंगी,
दया भाव कुछ मन में मेरे,
इसलिए दुःख कुछ पि जाउंगी 
पर मेरे थमने और चलने में 
है दोनों में  नुकसान तुझे 
खुछ दूर खड़े तेरे अपने प्यासे 
हा प्यास भुझानी उनकी मुझे !
मैं चलने के लिए आई हूँ 
मेरा चलना ही हितकर है,
मेरे रुकने से तेरा कहाँ 
आगे सोच कहाँ सफ़र है ...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 


नोट :
आज नदी की दयनीय दशा पर कुछ लिखा है या यूँ कह सकते हैं की  बर्षों से नदी के मन में जो भव विचरण कर रहे थे वो आज बहार निकल गए, मानव से विनीति कर रहे हैं कि हे मानव तू मुझे मत रोक मैं प्रलय की ज्वाला हूँ, वो तो मैं इस लिए चुप बैठी हूँ कि अबोध जन भी मेरी राह में है अन्यथा मैं कब के इस मिटटी कि दीवारों को घसीटती हुयी साथ में ले जाती, अभी भी समय है जाग जा 



Monday, June 4, 2012

मेरा खिलौना

मेरा खिलौना 
मैं शव्दों के खिलौना से खेलता हूँ 
मैं शव्दों में बिखरे अक्षरों को धकेलता हूँ 
मैं नहीं देखता हूँ तूफानी नदियों को 
मैं शव्दों की पंक्तियों में तैरता हूँ !
कलम खुद ही पकती है मेरा हाथ 
कागज खुद ही उड़ता मेरे साथ 
मैं सयाही को घोल भी नहीं पाया 
कि शव्द उछल कर कूद पड़ते हैं !
इनके अचानक आने से 
मन में तूफान उमड़ पड़ता है 
छोड़ कर अपने सरे काम 
मन चंचल चल पड़ता है
मन चंचल चल पड़ता है 
मन चंचल चल पड़ता है ............राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'










Monday, May 28, 2012

इन्सान, इन्सान को खा रहा है


हे जमीं आसमां देख लो जरा 

ये नज़ारा हमें दर्पण दिखा रहा है। 

दो पल दो पल की ख़ुशी के लिए 

इन्सान, इन्सान को खा रहा है !

किताबों के दो शव्द उठा कर 

अपनी हंसी यूँ खिल खिला रहा है। 

चाँद पर पग क्या रखा 

खुद को मसीहा बता रहा है। 

खोद कर अपनी जड़ें ये 

मिटटी में उसे दबा रहा है 

कैंसे यकीं करें खुद पर हम,

जब इन्सान को इन्सान खा रहा है ........रचना -राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
  • नोट : कृपया इन्सान को इन्सान खा रहा का मतलब अन्यथा ना लें ये राजनीति के लिए प्रयोग किया गया है वाकी आप लोग साहित्य के जानकर हो ......... रस, छंद , अलंकार और शव्द शक्ति का कमाल भी समझते हो



मेरी तीन रचनाये विनोद भगवत जी के हिंदी साप्ताहिक 'शव्द दूत' के प्रथम संस्करण में प्रकाशित  

Friday, May 18, 2012

क्या चैदुं त्वे हे पहाड़


पहाडु तैं विकाश चैदुं

जनता तैं हिसाब चैदुं 
इन मरियुं यूँ नेताऊ कु 
युं दलालु तैं ताज चैदुं 
ठेकादारी युंकी खूब चलदी 
रुपयों पर युं तै ब्याज चैदुं 
गरीबु तै गास चैदुं 
बेरोज्गारू तै आस चैदुं
गोरु बाखरों तै घास चैदुं ........राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'



Thursday, May 17, 2012

ऑंखें 

इन आँखों के सामने से निकलता है सबेरा 
इन आँखों के सामने से निकलता है अँधेरा 
इन की ख़ामोशी पे गौर कीजियेगा 
इनको शिकवा फिर भी किसी से नहीं .............रचना राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'








धरती तो लुट ली इंसानियत ने,
अब आसमां लुटने निकले है 
परिंदे भी क्या करें बेचारे,
अब अन्धेंरे से भी डरते हैं .......रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'  








चले तो किस से चलें 


पांवों से चलने को सफ़र कहते है लोग 
आँखों से चलें तो डगर कहते हैं लोग 
श्वांसों से चल दिए तो अफसाना 
और मन से चल दिए तो मस्ताना .......रचना- राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 









Thursday, May 3, 2012

इन्सान तू क्या चाहता है रे

धरती तो लुट ली इंसानियत ने, 
अब आसमां लुटने निकले है 
परिंदे भी क्या करें बेचारे, 
अब अन्धेंरे से भी डरते हैं 
नदियों ने तो बहना छोड़ दिया 
घटाओं ने लहराना रोक दिया 
बहारों को क्या दोष दें हम 
जब इन्सान ने खुद यूँ ढाल दिया 
तूफान समुन्दर का भी डरने लगा है 
इन्सान के इस नजराने से 
मौत भी अब घबराने लगी है 
आज के इस विज्ञानं से 
सूरज की उगलती आग को 
इसने काबू कर लिया है 
चाँद की शीतल छा में 
इसने कदम रखलिया है 
उड़ते हुए बदल को ये 
निगाहों से निचोड़ने लगा है 
अपनी खुशियों के खातिर 
हिमालय को फोड़ने लगा है .......रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

Tuesday, May 1, 2012

मजदूर


मजबूर हूँ मजदूरी से पेट का 
गुजरा अब हाथ से निकल रहा, 
अब हम चुप कब तक रहे, 
हृदय हमारा पिघल रहा, 
मेहनत करके नीव रखी देश की, 
अब सब बिफल रहा, 
अपने हकों के लिए चुना नेता, 
देखो हम को ही निगल रहा, 
डिग्री लेकर कोई इंजिनियर 
कुर्सी पर जो रोब जमता है
देखा जाय तो बिन मजदूर के 
वो रेस का लंगड़ा घोडा है, ..........रचना- राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'


Friday, March 23, 2012

मेरे देश का क्या होगा

मन भ्रमित हैं सब के अब
आँखें झील सी लहराती
इक बेचारी राजनीति से
लड़खड़ाते भारतवासी
राम रहीम का देश था ये
शांति ही इसकी लाठी थी
दूसरों की खुशियों पे कुर्वानी
ऐंसी मेरे देश की थी माटी .........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

Tuesday, March 13, 2012

पत्थर भी बोलते हैं


टूट कर आज हिमालय भी
हमको आवाज लगाता है 
मौन पड़े हैं वो जलप्रपात 
उपवन का जो मन बहलाता है 
कलरव चिड़ियों का 
भोर नहीं ले कर आता 
लाठी डंडे चीख पुकारें
रोज़ सवेरा अब ऐंसा आता
पहाड़ काट कर सड़कें बनती 
नदियाँ रोक कर बनते बांध
खुद को ही छल रहा धरा पर
अबोध बना ये इन्सान 
आसमान खामोश खड़ा है 
सूरज तक हैं इस पर हैरान 
तारे टूट पड़ते हैं धरती पर 
चाँद ठगा सा लगता वेजान  
हर मोड़ पर मनचले मिलते हैं 
पग पग पर जल जले निकलते हैं 
क्या होगा इस धरती का 
अब पत्थर भी ये बोलते हैं ............रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'  

Wednesday, February 22, 2012

तुम्हें चलना है

तुम्हें चलना है 
मेरे नन्हें शव्दों 
तुम्हें कागज पर उतर कर 
विचलित नहीं होना ! 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है! 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है ! 
तुम्हें ठहर कर कागज पर 
भार नहीं बनना है 
तुम्हें फैल कर कागज पर 
दाग नहीं बनना है 
तुम्हें रुक कर किसी की आँखों में 
पीड़ा का अहसहस नहीं भरना है 
तुम्हें रुक कर किसी तूफान में 
विचलित मन नहीं करना है 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है! 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है ! 
तुम्हें सुबह की रोशनी पर चलना 
तुम्हें साँझ की दुपहरी सा भी ढलना है 
तुम्हें ऊँचे पहाड़ सा बनना है 
तुम्हें दहकती आग सा जलना है 
परन्तु तुम्हें ये याद रखना है 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है! 
तुम्हें चलना है ! तुम्हें चलना है ! ..........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'


मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।