मेरा खिलौना
मैं शव्दों के खिलौना से खेलता हूँ
मैं शव्दों में बिखरे अक्षरों को धकेलता हूँ
मैं नहीं देखता हूँ तूफानी नदियों को
मैं शव्दों की पंक्तियों में तैरता हूँ !
कलम खुद ही पकती है मेरा हाथ
कागज खुद ही उड़ता मेरे साथ
मैं सयाही को घोल भी नहीं पाया
कि शव्द उछल कर कूद पड़ते हैं !
इनके अचानक आने से
मन में तूफान उमड़ पड़ता है
छोड़ कर अपने सरे काम
मन चंचल चल पड़ता है
मन चंचल चल पड़ता है
मन चंचल चल पड़ता है ............राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
1 comment:
कवि मन में अनायास उठते तरंगों से प्रेरित सुंदर सी कविता ...
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