Tuesday, July 3, 2012

बनू तो क्या बनू

न पास मेरे धन दौलत है,
न जनमत का भंडार। 
सिमित चंद इरादे हैं, 
जीवन जीने का आधार 
न राही मिला कोई अपना, 
न मंजिल पर दीखता है 
निकलता हूँ जिस गली पे 
हर कोई वहां बिकता है 
फिर बनू तो क्या बनू ........
सपनो के सुनहरे पथ पर,
अपने राह रोके मिलते हैं  
फूल वही मन हर्षाते सबका,
काँटों में जो खिलते हैं 
फिर बनू तो क्या बनू ........
कोयला भी आग में ताप कर,
रंग नहीं बदलता है 
संघर्ष पथ पर जलता सूरज 
यूँ तो हर रोज निकलता है
फिर बनू तो क्या बनू ..... ।  ....रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'




3 comments:

शिवनाथ कुमार said...

कोयला भी आग में ताप कर,
रंग नहीं बदलता है।
संघर्ष पथ पर जलता सूरज
यूँ तो हर रोज निकलता है।
फिर बनू तो क्या बनू .....

गूढ़ भावपूर्ण रचना !!

मनोज कुमार said...

हमें सबसे पहले एक इंसान बनने का यत्न करना चाहिए, फिर तो खु-ब्खुद रास्ते निकलते चले जाते हैं।

संध्या शर्मा said...

जी हाँ मनोज जी ने सही कहा है हम एक अच्छा इंसान बन सकें यही बहुत है... सुन्दर भाव

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