रफ्तार
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर सड़कों की
और शहरों की ओर लोगों की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर अपराधों की
ओर शहरों की ओर संस्कृति की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की व्यापार की,
शहरों की और बेरोजगार की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर विश्वास की,
शहरों की ओर अविश्वास की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है
देखो! गाँवों की ओर विनाश की
शहरों की ओर विकास की ।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! शहरों की ओर इंसानियत की,
गाँवों की ओर हैवानियत की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। @ - पंक्तियाँ, सर्वाधिकार, सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
ब्लॉग में आपको अनेक विषय वस्तुओं पर जानकारियाँ मिलेंगी जैंसे Education, Technology, Business, Blogging आदि।
Wednesday, December 14, 2016
गाँव
बुढा हो चला है
क्यों लौट रहे हो
बर्षों बाद आँखों में
आँसू लिए किसको
ढूंढ रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
तुम भी घुटनों पर
उठ कर गिर रहे हो,
फिर आज यूँ क्यों
लड़खड़ाते हुये
कदम वापस बढ़ा रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
वो भूल चुका है तुम्हें
तुम भी भूल चुके थे
किसके लिए तुम
पत्थर रख हृदय में
यूँ वापस आ रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
अशिक्षित है मगर
अपनी मातृभाषा को
पहिचानता है
तुम तो विदेशी भाषाओँ के
बादशाह बन बैठे थे
फिर क्यों लौट आये। @ - सर्वाधिकार सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
Friday, July 29, 2016
Wednesday, July 13, 2016
Wednesday, April 6, 2016
Wednesday, February 10, 2016
घर
मैं निकल पडा हूँ, घर की तलाश में !
जहाँ बूढी अम्मा,
एक नई पीढ़ी को,
गाथाएँ सुनती हुई मिले lमैं निकल पडा हूँ,
घर की तलाश में !
जहाँ पर गूँज रही हो किलकारियाँ,
और महकता हुआ आँगन मिले l
मैं निकल पडा हूँ,
घर की तलाश में !
जहाँ पर दीवारें गुनगुनाती हों,
मिट्टी के सौन्दर्य की कहानी,
और एहसास न हो चार दिवारी का l @ - रचना , सर्वाधिकार सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
Thursday, January 7, 2016
दर्द सिपनयों कु
तुमारी आँख्यों मा देखा,
आँसू च घुमणू।
गौं कु भुल्यूं बाटू दिदौं
आज यू खोजणू।
बितड़ग्याँ तुम विचारा,
शहर की हवा मा।
जिंदगी हिटणा हाँ,
डॉक्टरुई दवाय मा। - @ पंक्तियाँ सर्वाधिकार, सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
Wednesday, January 6, 2016
फौजी
कब तक सीना छलनी यूँ सरहद पर,
करवाता रहेगा अपना फौजी।
चुप बैठें हैं घौर तपोवन में जैंसे,
चिपके हैं कुर्सी पर दीमक बन कैंसे,
क्यों न सरहद पर कुछ बूँद लहू की,
अब तुम भी दे दो जी ।
कब तक सीना छलनी यूँ सरहद पर,
करवाता रहेगा अपना फौजी। @ पँक्तियाँ सर्वाधिकार सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
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