Thursday, May 23, 2013

मैं नीम ही हूँ


मैं नीम हूँ देखा है मैंने भी
धरती पर उगता जीवन
खिल खिलाती हंसी
और महकता उपवन !
कहूँ क्या मैं किस कदर
आज उलझा हुआ हूँ,
अपने ही कडवेपन से
खुद से कितना खपा हूँ !
अब किसको चाह है मेरी,
मैं खुद ये सोचता हूँ,
साबुन मंजन सब मेरे ही है,
मैं खुद को क्यों कोसता हूँ !
न खेतों पर अब पगडण्डी हैं,
न घर पर चार दिवारी,
न अम्माएं अब कथा सुनती
न मिलती बच्चों की किलकारी !
अब झुरमुट चिड़ियों का लेकर,
वो भोर कहाँ आता है,
थका हारा है हर ओर मानव
पग पग पर ये बिखर जाता है !
खो कर जीवन सहज अपना
रख कर पत्थर हृदय पटल पर
सभ्यता की दौड, दौड़ रहा
हो कर कैद समय रथ पर ! – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’





मालू के पत्तलों एवं डोने (Maalu Done Pattal)

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