रफ्तार
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर सड़कों की
और शहरों की ओर लोगों की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर अपराधों की
ओर शहरों की ओर संस्कृति की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की व्यापार की,
शहरों की और बेरोजगार की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! गाँवों की ओर विश्वास की,
शहरों की ओर अविश्वास की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है
देखो! गाँवों की ओर विनाश की
शहरों की ओर विकास की ।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है,
देखो! शहरों की ओर इंसानियत की,
गाँवों की ओर हैवानियत की।
रफ्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। @ - पंक्तियाँ, सर्वाधिकार, सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
ब्लॉग में आपको अनेक विषय वस्तुओं पर जानकारियाँ मिलेंगी जैंसे Education, Technology, Business, Blogging आदि।
Wednesday, December 14, 2016
गाँव
बुढा हो चला है
क्यों लौट रहे हो
बर्षों बाद आँखों में
आँसू लिए किसको
ढूंढ रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
तुम भी घुटनों पर
उठ कर गिर रहे हो,
फिर आज यूँ क्यों
लड़खड़ाते हुये
कदम वापस बढ़ा रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
वो भूल चुका है तुम्हें
तुम भी भूल चुके थे
किसके लिए तुम
पत्थर रख हृदय में
यूँ वापस आ रहे हो।
गाँव
बुढा हो चला है
अशिक्षित है मगर
अपनी मातृभाषा को
पहिचानता है
तुम तो विदेशी भाषाओँ के
बादशाह बन बैठे थे
फिर क्यों लौट आये। @ - सर्वाधिकार सुरक्षित, राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
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