क्या करें इस सभ्यता का,
इंसानियत को निगले जो जा रही है !
लूट कर सुख चैन, विषाद का,
दीपक जो जला रही है !
हर ओर घना कोहरा है इसका,
सुख का क्षण कहीं दीखता है क्या .....?
कहाँ इंसानियत मानव के अन्दर,
पग - पग पर देखो विकता है क्या ..?
पानी प्यास मिटा नहीं सकता,
भूख को अनाज लुभा नहीं सकता !
धन दौलत के अम्बार भी देखो,
कुदरती नींद दिला नहीं सकता !
बहती नदियों को सुखा गयी,
अडिंग हिमालय को हिला गयी !
क्या संतोष मिला इस मानव को,
कदम - कदम पे देखो रुला रही !
छोर छुड़ाकर धरती का,
ले उडी मानव को चाँद की ओर !
मानवता को बाँध रही है,
प्रलोभन की ये विषैली डोर !
फ़ैल रहा उन्माद धरा पर,
अब रुकने का कहीं नाम नहीं !
मानव के हृदय में अब,
मानवता के लिए दाम नहीं .......... रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
6 comments:
सच में अब इंसानियत कहाँ रही...बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
"मानव के ह्रदय में अब,मानव के लिये दाम नहीं"
शशक्त भावाभिव्यक्ति......
मेरे विचार से ब्लॉग का नाम बिखरे हुए अक्षरों का संगठन के स्थान पर.......निखरे हुए अक्षरों का संगठन होना चाहिये...
bahut sunder rachna
"मानव के हृदय में अब,
मानवता के लिए दाम नहीं"
खुबसूरत, सटीक एवं गहन भाव....
धन दौलत के अम्बार भी देखो,
कुदरती नींद दिला नहीं सकता !-अतिसुन्दर
पर लोगो को कहा समझ पड़ रही राजेन्द्र जी
फ़ैल रहा उन्माद धरा पर,
अब रुकने का कहीं नाम नहीं !
मानव के हृदय में अब,
मानवता के लिए दाम नहीं
बहुत सुंदर प्रस्तुति !!
सार्थक रचना ....
काश, मानवता जागृत हो सके हर किसी के दिल में !
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