आखिर तुम कब खोलोगे ?
खिड़कियाँ!
अपने मन मस्तिष्क की। 
कानून, न्याय और अधिकार
सब पर आधिपत्य है तुम्हारा!
अपनी उलझनों पर तुम 
चटकनियाँ चढ़ा के बैठे हो,
तुम्हारे हाथ मे कुछ नही 
ये किस कंठ से कहते हो!
राम बनने की कोशिश में
हवा को छू लेते हो।
नाच रहा रावण मस्तिष्क पर 
ये घूट कैसे पी लेते हो! 
चाल दिख रही है हर एक को 
ये कदमताल भी तुम्हारी ही है,
तुम जी रहे हों किस वहम में 
ये लाचारी भी तुम्हारी ही है। 
आखिर कब खोलोगे ?
खिड़कियाँ!
अपने मन-मस्तिष्क की। @- राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 
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