Monday, May 28, 2012

इन्सान, इन्सान को खा रहा है


हे जमीं आसमां देख लो जरा 

ये नज़ारा हमें दर्पण दिखा रहा है। 

दो पल दो पल की ख़ुशी के लिए 

इन्सान, इन्सान को खा रहा है !

किताबों के दो शव्द उठा कर 

अपनी हंसी यूँ खिल खिला रहा है। 

चाँद पर पग क्या रखा 

खुद को मसीहा बता रहा है। 

खोद कर अपनी जड़ें ये 

मिटटी में उसे दबा रहा है 

कैंसे यकीं करें खुद पर हम,

जब इन्सान को इन्सान खा रहा है ........रचना -राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
  • नोट : कृपया इन्सान को इन्सान खा रहा का मतलब अन्यथा ना लें ये राजनीति के लिए प्रयोग किया गया है वाकी आप लोग साहित्य के जानकर हो ......... रस, छंद , अलंकार और शव्द शक्ति का कमाल भी समझते हो



3 comments:

शूरवीर रावत said...

अलग अलग विधाओं के माध्यम से आपका अनूठा प्रयोग देखते ही बनता है। आपकी इस ग़ज़ल से दिल को सकून सा मिला है। आभार !

रश्मि शर्मा said...

कैंसे यकीं करें खुद पर हम,
जब इन्सान को इन्सान खा रहा है ........सच लि‍खा है आपने...

Maheshwari kaneri said...

सही कहा इन्सान को इन्सान खा रहा है .. बहुत मार्मिक रचना

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