Tuesday, March 13, 2012

पत्थर भी बोलते हैं


टूट कर आज हिमालय भी
हमको आवाज लगाता है 
मौन पड़े हैं वो जलप्रपात 
उपवन का जो मन बहलाता है 
कलरव चिड़ियों का 
भोर नहीं ले कर आता 
लाठी डंडे चीख पुकारें
रोज़ सवेरा अब ऐंसा आता
पहाड़ काट कर सड़कें बनती 
नदियाँ रोक कर बनते बांध
खुद को ही छल रहा धरा पर
अबोध बना ये इन्सान 
आसमान खामोश खड़ा है 
सूरज तक हैं इस पर हैरान 
तारे टूट पड़ते हैं धरती पर 
चाँद ठगा सा लगता वेजान  
हर मोड़ पर मनचले मिलते हैं 
पग पग पर जल जले निकलते हैं 
क्या होगा इस धरती का 
अब पत्थर भी ये बोलते हैं ............रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'  

10 comments:

सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी said...

बहुत ही खूबसूरत शाब्दिक अभिव्यक्ति, पर उतनी ही कारुणिक व्यथा इस धरा की आपने व्यक्त की है...की सचमुच पत्थर भी बोल उठते हैं..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत अच्छी रचना लिखी है आपने!

Barthwal said...

प्रकृति के प्रति संवेदनशील नही है हम स्वार्थ की खातिर .... सुंदर अभिव्यक्ति राजेन्द्र जी

शूरवीर रावत said...

प्रकृति की पीड़ा आपने बखूबी बयां की है राजेन्द्र जी, आभार !
वस्तुतः हम प्रकृति का अनियोजित दोहन कर रहे हैं. जिससे इस प्रकार की विकराल समस्या उत्पन्न हो गयी है. यदि इन्सान प्रकृति से इसी तरह छेड़छाड़ जारी रखेगा तो एक दिन हमें ही भुगतना होगा. हमें गंभीरता से सोचना होगा.

शूरवीर रावत said...

Rajendra jee, please remove "Word Verification" from your blog to post comment easily.

Anonymous said...

waah! bahut hi umda

Anonymous said...

please remove "Word Verification" from your blog to post comment easily.

avanti singh said...

बहुत खूब!
पहली बार आप के ब्लॉग पर आना हुआ,फेसबुक पर आप की पोस्ट देखि उस के जरिये यहाँ तक पहुची रचना भी सुन्दर है और ब्लॉग भी ,आप को अभी से फोलो कर रही हूँ

राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' said...

सभी मित्रों का आभार आशा है आपका मधुर स्नेह मिलता रहेगा

Kewal Joshi said...

वाह, .. ये दर्द, पत्थरों द्वारा , ...बहुत सुन्दर.

मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।