मजबूर हूँ मजदूरी से पेट का
गुजरा अब हाथ से निकल रहा,
अब हम चुप कब तक रहे,
हृदय हमारा पिघल रहा,
मेहनत करके नीव रखी देश की,
अब सब बिफल रहा,
अपने हकों के लिए चुना नेता,
देखो हम को ही निगल रहा,
डिग्री लेकर कोई इंजिनियर
कुर्सी पर जो रोब जमता है
देखा जाय तो बिन मजदूर के
वो रेस का लंगड़ा घोडा है, ..........रचना- राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
3 comments:
bahut badiya samyik chintansheel prastuti..
sach bahut sochniya esthiti hai...majdoor ki sunne wale bahut kam mil paayeinge..
gaon ki bakri ki tasveer gaon kee yaad dila rahi hai..dhanyavad..
फेस बुक पर तो आपका धमाल रहता ही है, मई दिवस पर यह कविता भी बहुत पसंद आयी. आभार !
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