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Tuesday, September 4, 2012
Saturday, September 1, 2012
सांसों को को देखता ही नहीं
दिल ले गया था कोई कभी
अब तो जिस्म ही बेजान है !
सांसों को कोई देखता ही नहीं,
पत्थर भी कहने को यहाँ भगवान है !! .......रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
Friday, August 31, 2012
Thursday, August 30, 2012
Saturday, August 4, 2012
अँधेरा
कदम खुद ही चलते है
अँधेरे के निशा ढूंढ़ने !
रोक न पायें जब खुद को,
हम अँधेरे को क्यों दोष दें !
उजाला हर किसी की ओढनी,
हम अँधेरे को ही ओढलें !
उजालों ने थकाया हमें
निगाहों ने लुटाया हमें !
क़दमों ने भी पकड़ी वही राह,
फिर रास्तों को क्यों हम दोष दें !
मुस्कुराता है वो चाँद भी,
अँधेरी ही राह पर,
फिर जगमगाते तारों को,
हम क्यों दोष दें ! .........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
अँधेरे के निशा ढूंढ़ने !
रोक न पायें जब खुद को,
हम अँधेरे को क्यों दोष दें !
उजाला हर किसी की ओढनी,
हम अँधेरे को ही ओढलें !
उजालों ने थकाया हमें
निगाहों ने लुटाया हमें !
क़दमों ने भी पकड़ी वही राह,
फिर रास्तों को क्यों हम दोष दें !
मुस्कुराता है वो चाँद भी,
अँधेरी ही राह पर,
फिर जगमगाते तारों को,
हम क्यों दोष दें ! .........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
Saturday, July 21, 2012
मुझे आजादी चाहिए
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''
(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''
(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)
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