ये धरती कब क्या कुछ कहती है
सब कुछ अपने पर सहती है,
तूफान उड़ा ले जाते मिटटी,
सीना फाड़ के नदी बहती है !
सूर्यदेव को यूँ देखो तो,
हर रोज आग उगलता है,
चाँद की शीतल छाया से भी,
हिमखंड धरा पर पिघलता है !
ऋतुयें आकर जख्म कुदेरती,
घटायें अपना रंग जमाती,
अम्बर की वो नीली चादर,
पल पल इसको रोज़ सताती !
हम सब का ये बोझ उठाकर,
परोपकार का मार्ग दिखाती,
सहन शीलता धर्मं है अपना,
हमको जीवन जीना सिखाती ! - रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
सब कुछ अपने पर सहती है,
तूफान उड़ा ले जाते मिटटी,
सीना फाड़ के नदी बहती है !
सूर्यदेव को यूँ देखो तो,
हर रोज आग उगलता है,
चाँद की शीतल छाया से भी,
हिमखंड धरा पर पिघलता है !
ऋतुयें आकर जख्म कुदेरती,
घटायें अपना रंग जमाती,
अम्बर की वो नीली चादर,
पल पल इसको रोज़ सताती !
हम सब का ये बोझ उठाकर,
परोपकार का मार्ग दिखाती,
सहन शीलता धर्मं है अपना,
हमको जीवन जीना सिखाती ! - रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
7 comments:
बेहद प्रभावकारी रचना है राजेन्द्र भाई जी!
ऋतुओं का जख्म कुरेदना...... अलग ही प्रभाव है इस पंक्ति में|
शुभकामनाएं
अच्छी रचना. शुभकामना.
सुंदर कृति और भावनामय
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नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें: ज़िन्दगी के हर्फ़ बदल गये हैं
बहुत सुन्दर भाव सुन्दर रचना ..
उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
सार्थक प्रस्तुति!
सुन्दर शब्दों का समागम और अर्थपूर्ण विचार राजेंद्र जी।
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