Friday, January 25, 2013

आशंकित मन

लुट रही तन की गठरी,

मन पर आशंका ठहरी है,

किस ओर बढ़ाएं पग अपने,

हर आँख शिकारी बन पहरी है !

मूल भूल कर संस्कृति का,

पनप रही रंग लहरी है 

उन्माद भरे हैं मस्तिष्क अब,

दिख रही ये खाई गहरी है ! - रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'




3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

वन्देमातरम् ! गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!

रविकर said...

बढ़िया प्रस्तुति |
आभार -

गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें-

Anonymous said...

हर आखं शिकारी बन पहरी है ---बहुत ही मर्म मे डूबी--- क्या कहू लगता है की अब तो सब के सब पितामाह की तरह आखे मूंदे बैठे है और अब तो कृष्ण भी नहीं दिखाई दे रहा है जो चिर बढ़ाकर लाज बचाये

सी यू ई टी (CUET) और बोर्ड परीक्षा का बोझ कब निकलेगा।

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