Saturday, January 19, 2013

धरती

ये धरती कब क्या कुछ कहती है

सब कुछ अपने पर सहती है,

तूफान उड़ा ले जाते मिटटी,

सीना फाड़ के नदी बहती है !

सूर्यदेव को यूँ  देखो तो,

हर रोज आग उगलता है,

चाँद की शीतल छाया से भी,

हिमखंड धरा पर पिघलता है !

ऋतुयें आकर जख्म कुदेरती,

घटायें अपना रंग जमाती,

अम्बर की वो नीली चादर,

पल पल इसको रोज़ सताती !

हम सब का ये बोझ उठाकर,

परोपकार का मार्ग दिखाती,

सहन शीलता धर्मं है अपना,

हमको जीवन जीना सिखाती !  -  रचना  - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

















7 comments:

Unknown said...

बेहद प्रभावकारी रचना है राजेन्द्र भाई जी!

ऋतुओं का जख्म कुरेदना...... अलग ही प्रभाव है इस पंक्ति में|

शुभकामनाएं

Prem Chand Sahajwala said...

अच्छी रचना. शुभकामना.

Vinay said...

सुंदर कृति और भावनामय

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नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें: ज़िन्दगी के हर्फ़ बदल गये हैं

ANKUSH CHAUHAN said...

बहुत सुन्दर भाव सुन्दर रचना ..

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक प्रस्तुति!

NKC said...

सुन्दर शब्दों का समागम और अर्थपूर्ण विचार राजेंद्र जी।

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