कब छोड़ चला वो बचपन मुझको,
मुझको कुछ भी याद नहीं
क्या मांगू अब किसे पुकारूँ,
सुनता कोई फरियाद नहीं
नादानी थी ऊपर मेरे,
चाँद की मै हठ कर बैठा
रूठ गया है बचपन मुझसे,
तब से खोया सा मै रहता
रिमझिम बादल बरस पड़ते थे,
नौका कागज की मैं खेता
तितली जुगनू खेल खिलाते,
थक हार कर तब मैं सोता
कब छोड़ चला वो बचपन मुझको,
मुझको कुछ भी याद नहीं
क्या मांगू अब किसे पुकारूँ,
सुनता कोई फरियाद नहीं ............ रचना-राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
मुझको कुछ भी याद नहीं
क्या मांगू अब किसे पुकारूँ,
सुनता कोई फरियाद नहीं
नादानी थी ऊपर मेरे,
चाँद की मै हठ कर बैठा
रूठ गया है बचपन मुझसे,
तब से खोया सा मै रहता
रिमझिम बादल बरस पड़ते थे,
नौका कागज की मैं खेता
तितली जुगनू खेल खिलाते,
थक हार कर तब मैं सोता
कब छोड़ चला वो बचपन मुझको,
मुझको कुछ भी याद नहीं
क्या मांगू अब किसे पुकारूँ,
सुनता कोई फरियाद नहीं ............ रचना-राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
9 comments:
"बचपन".............ये शब्द अपने-आप में मौज-मस्ती से भरपूर है :)) सुन्दर रचना राजेन्द्र जी....साधुवाद |
bahut khoobsoorat.... rajendra ji.. :)
bahut sundar Rachna
बचपन की यादो को ,बिखरे हुए संगठन को लाजवाब प्रेरणा से जोड़ना ,एक उत्तम पर्यास !बधाई फरियादी जी !
सभी मित्रों का हार्दिक आभार आप लोगों से ही ये प्रेरणा मिलती है मुझे ...........आशा है आप सब मित्रों का स्नेह और अश्रीवाद मेरे ऊपर बना रहेगा |
बहुत खुबसूरत शब्द रचना राजेंद्र जी मै पहले भी आपकी इस रचना को पढ़ा है शायद आपने मेरे टाइम लाइन पर भी भेजा था...बहुत सुंदर
बचपन कि बातें हमें आज भी बचपन में पहुंचा देती हैं ...सुंदर रचना
कैसा था बचपन
विशाल तरुवर सा सर पर पिता का साया,
हरे भरे खेत सा लहलहाता माँ का आँचल,
फूलों फलों सी लदी डाल सा भाई बहनों का संग,
नित नई शरारतें नित नए नए रंग ,
यही था हमारा बचपन में जीने का ढंग ,
मिल जुल कर सुबह सवेरे पाठशाला जाना,
सहपाठियों से प्यार, मिलना और झगड़ना .
इससे बात करना उस से करना कुट्टी ,
खूब ऊधम मचाना जब होती थी छुट्टी,
ऐसी ऐसी शरारते की दुनिया रह जाये दंग
यही था हमारा बचपन में जीने का ढंग ,
त्योहरों पर खूब मचती थी धमा चौकड़ी ,
माँ बनाती थी हलवा पूड़ी खीर और कचौड़ी ,
राखी और भैय्या दूज पर उमड़ता था प्यार ,
शरारतें भी करते थे ,और पड़ती भी थी मार,
होली में होता था यारों संग खूब हुड दंग,
यही तो था हमारा बचपन में जीने का ढंग ,
न रहा अब वो बात बात में रूठना, वो मनाना
वो छोटी छोटी बात पे रोना,वो हँसना हँसाना .
बीते बचपन को याद करते हैं, दिल में उठती है नई उमंग,
वो पेच लडाना, वो काटा ,वह आसमान छूती हुई पतंग,
यही था हमारा बचपन में जीने का ढंग ,
अब कहाँ गया वो बचपन,अब ज़िम्मेदारी का सामान है,
अजनबी इस दुनिया में हर शख्स पूरा परेशान है,
कैसे आयगी अब वो रौनक वो जीवन में नित नई तरंग,
नित नए नए कपडे ,फूलों से कपड़ों के रंग ,
यही था हमारा बचपन में जीने का ढंग ,
जय प्रकाश भाटिया
०५/१०/२०१
Bahut achcha likhney lagey Hain aap...
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