आखिर तुम कब खोलोगे ?
खिड़कियाँ!
अपने मन मस्तिष्क की।
कानून, न्याय और अधिकार
सब पर आधिपत्य है तुम्हारा!
अपनी उलझनों पर तुम
चटकनियाँ चढ़ा के बैठे हो,
तुम्हारे हाथ मे कुछ नही
ये किस कंठ से कहते हो!
राम बनने की कोशिश में
हवा को छू लेते हो।
नाच रहा रावण मस्तिष्क पर
ये घूट कैसे पी लेते हो!
चाल दिख रही है हर एक को
ये कदमताल भी तुम्हारी ही है,
तुम जी रहे हों किस वहम में
ये लाचारी भी तुम्हारी ही है।
आखिर कब खोलोगे ?
खिड़कियाँ!
अपने मन-मस्तिष्क की। @- राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
#राजनेता
#टूटतासमाज
#तड़फतीइंसानियत
#कुर्सियाँ
#चालाकियाँ
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-10-2022) को "ब्लॉग मंजूषा" (चर्चा अंक-4579) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ अक्टूबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह!बहुत बढ़िया कहा 👌
उम्दा लेखन
आदरणीय स्वेता सिन्हा जी आदरणीय अनिता सैनी जी एवं आदरणीय संगीता स्वरूप जी आप एवं आपके इस अद्भुत ब्लॉग प्रबंधन टीम का हार्दिक धन्यवाद। आशा है आप सभी का स्नेह एवं आशीष मेरे शब्दों को यूँ ही मिलता रहेगा।
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