Wednesday, October 10, 2012

फूल को तोड़ लेते

निर्जीव पत्थर को हम , 

देव मानते चले हैं अपना, 

मुस्कराते फूल तोड़ कर, 

रोज करते है एक गुनाह !..........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'


4 comments:

गुड्डोदादी said...

कभी पत्थर से पूछा उसे कितना दर्द हुआ होगा जब तराशा गया

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भला भगवान पर भगवान को क्यों कर चढ़ाऊँ मैं...!

Mamta Bajpai said...

फूल टहनी पर ही अच्छे लगते हैं ...... वे जो पौधे लगाते हैं उन्हें ये अहसास होता है .
पर औरों को नहीं

पी.एस .भाकुनी said...

संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित रचना ........

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