Saturday, September 29, 2012

ये खेल निराला है


टांग खिंच कर अपनों की, 
जहाँ ख़ुशी मानते हैं लोग,
दे कर धोखा अपने को ही 
करते चतुराई का उपयोग !

खरीद पोख्त का मायावी,
बढ रहा अब ये कारोबार,
गाँव गरीवों से नोट चुराकर,
करते खुल कर यहाँ व्यापर !

देश धर्म से ऊपर उठ कर,
खुद को कहते पालनहार,
वोट मांगने दर पर पहुंचे,
देखो इनको कितने लाचार !

बन विजयी देखो इनको,
लगते राणा के अवतार,
लुट पाट में गजनी बन बैठे,
भूल गए लोगों का उपकार !

बड़े बड़े महारथी यहाँ,
चोरी का तगमा पहने हैं,
पूती है कालिख हर चहरे पर,
अकेले अकेले ये सहमे है ! -!!!!! रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

नोट: शव्द सारांश 

1. राणा - महाराणा प्रताप 
2. गजनी - मोहमद गजनी 

3 comments:

गुड्डोदादी said...

दे कर धोखा अपने को ही
करते चतुराई का उपोयोग
!
रघुपति सदा चली आयी

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति ! मात्राओं में हो गयी टंकण अशुद्धियों को ठीक कर लें !

Madan Mohan Saxena said...

बहुत सुंदर .बेह्तरीन अभिव्यक्ति.शुभकामनायें.

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