पर्यावरण दिवस पर सिमटे हुए मेरे कुछ शव्द
नदी
न बांध मुझे ये इन्सान,
इस मीट्टी के घरोंदे में !
कब तक रोकेगा मुझे भला
मैं तो चलने के लिए आई हूँ !
मेरे अपने कुछ राह तकते हैं,
देख मुझे यूँ उनके अश्क छलकते हैं !
जीवन देने आई हूँ मैं,
देख वो कैंसे बिलखते हैं !
आ जाऊं अपने पर यदि मैं
जड़ से मिटाकर ले जाउंगी,
दया भाव कुछ मन में मेरे,
इसलिए दुःख कुछ पि जाउंगी
पर मेरे थमने और चलने में
है दोनों में नुकसान तुझे
खुछ दूर खड़े तेरे अपने प्यासे
हा प्यास भुझानी उनकी मुझे !
मैं चलने के लिए आई हूँ
मेरा चलना ही हितकर है,
मेरे रुकने से तेरा कहाँ
आगे सोच कहाँ सफ़र है ...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
नोट :
आज नदी की दयनीय दशा पर कुछ लिखा है या यूँ कह सकते हैं की बर्षों से नदी के मन में जो भव विचरण कर रहे थे वो आज बहार निकल गए, मानव से विनीति कर रहे हैं कि हे मानव तू मुझे मत रोक मैं प्रलय की ज्वाला हूँ, वो तो मैं इस लिए चुप बैठी हूँ कि अबोध जन भी मेरी राह में है अन्यथा मैं कब के इस मिटटी कि दीवारों को घसीटती हुयी साथ में ले जाती, अभी भी समय है जाग जा
9 comments:
सही लिखा है आपने ...
जागृत करती सुंदर सी रचना ..
बधाई ... साभार !
सटीक प्रस्तुति...
100 प्रतिशत सच
सादर
बेहतरीन.......................
सार्थक प्रस्तुति..............................
आज 11/06/2012 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बेहतरीन रचना...
बहुत सुंदर रचना....
सादर।
आ जाऊं अपने पर यदि मैं
जड़ से मिटाकर ले जाउंगी, क्या बात है
सच ही तो है ....उसका जीवन कब अपना है
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