टूट कर आज हिमालय भी
हमको आवाज लगाता है
मौन पड़े हैं वो जलप्रपात
उपवन का जो मन बहलाता है
कलरव चिड़ियों का
भोर नहीं ले कर आता
लाठी डंडे चीख पुकारें
रोज़ सवेरा अब ऐंसा आता
पहाड़ काट कर सड़कें बनती
नदियाँ रोक कर बनते बांध
खुद को ही छल रहा धरा पर
अबोध बना ये इन्सान
आसमान खामोश खड़ा है
सूरज तक हैं इस पर हैरान
तारे टूट पड़ते हैं धरती पर
चाँद ठगा सा लगता वेजान
हर मोड़ पर मनचले मिलते हैं
पग पग पर जल जले निकलते हैं
क्या होगा इस धरती का
अब पत्थर भी ये बोलते हैं ............रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
10 comments:
बहुत ही खूबसूरत शाब्दिक अभिव्यक्ति, पर उतनी ही कारुणिक व्यथा इस धरा की आपने व्यक्त की है...की सचमुच पत्थर भी बोल उठते हैं..
बहुत अच्छी रचना लिखी है आपने!
प्रकृति के प्रति संवेदनशील नही है हम स्वार्थ की खातिर .... सुंदर अभिव्यक्ति राजेन्द्र जी
प्रकृति की पीड़ा आपने बखूबी बयां की है राजेन्द्र जी, आभार !
वस्तुतः हम प्रकृति का अनियोजित दोहन कर रहे हैं. जिससे इस प्रकार की विकराल समस्या उत्पन्न हो गयी है. यदि इन्सान प्रकृति से इसी तरह छेड़छाड़ जारी रखेगा तो एक दिन हमें ही भुगतना होगा. हमें गंभीरता से सोचना होगा.
Rajendra jee, please remove "Word Verification" from your blog to post comment easily.
waah! bahut hi umda
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बहुत खूब!
पहली बार आप के ब्लॉग पर आना हुआ,फेसबुक पर आप की पोस्ट देखि उस के जरिये यहाँ तक पहुची रचना भी सुन्दर है और ब्लॉग भी ,आप को अभी से फोलो कर रही हूँ
सभी मित्रों का आभार आशा है आपका मधुर स्नेह मिलता रहेगा
वाह, .. ये दर्द, पत्थरों द्वारा , ...बहुत सुन्दर.
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