ऋतु रिश्ते या रूप सभालूँ
या सूरज की ये धूप सभालूँ
बचपन रूठा छूटे खेल-खिलौने
किसको अब मैं साथी बनालूँ।
अब तो हवा से डर लगता है
पानी जहर सा यहाँ बिकता है
खाने में अब क्या क्या खाएँ
आदमी, आदमी कहाँ दिखता है।
रोज सबेरे मन घबराये
छोड़ धरातल चढ़ता जाये
जितना खींचूँ पलपल अपना
उतना दलदल बढ़ता जाये। @ - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
या सूरज की ये धूप सभालूँ
बचपन रूठा छूटे खेल-खिलौने
किसको अब मैं साथी बनालूँ।
अब तो हवा से डर लगता है
पानी जहर सा यहाँ बिकता है
खाने में अब क्या क्या खाएँ
आदमी, आदमी कहाँ दिखता है।
रोज सबेरे मन घबराये
छोड़ धरातल चढ़ता जाये
जितना खींचूँ पलपल अपना
उतना दलदल बढ़ता जाये। @ - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
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