मैं नीम हूँ देखा है
मैंने भी
धरती पर उगता जीवन
खिल खिलाती हंसी
और महकता उपवन !
कहूँ क्या मैं किस
कदर
आज उलझा हुआ हूँ,
अपने ही कडवेपन से
खुद से कितना खपा
हूँ !
अब किसको चाह है
मेरी,
मैं खुद ये सोचता
हूँ,
साबुन मंजन सब मेरे ही
है,
मैं खुद को क्यों
कोसता हूँ !
न खेतों पर अब
पगडण्डी हैं,
न घर पर चार दिवारी,
न अम्माएं अब कथा
सुनती
न मिलती बच्चों की
किलकारी !
अब झुरमुट चिड़ियों
का लेकर,
वो भोर कहाँ आता है,
थका हारा है हर ओर
मानव
पग पग पर ये बिखर
जाता है !
खो कर जीवन सहज अपना
रख कर पत्थर हृदय
पटल पर
सभ्यता की दौड, दौड़
रहा
हो कर कैद समय रथ पर ! – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’
2 comments:
हर कहीं, हर जगह परिवर्तन की लहर है जो आनी ही है...
अच्छे भाव...
सुंदर..
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