मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''
(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''
(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)
14 comments:
सच कहा आपने ये विलायती बहु क्या दर्द दे सकती है, दर्द तो अपने दे रहे हैं ....
सुंदर ढंग से हिंदी के दर्द को दिखाया है आपने .
हिंदी की पीड़ा को आपने बखूबी बयां किया है..... सचमुच ही हिंदी अपनों के बीच ही परायी हो गयी है. वह तो भला हो हिंदी फिल्मों का जो आज पूरे देश में हिंदी का प्रचार प्रसार हो रहा है. हालांकि यह अलग बात है कि हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियां व निर्माता, निर्देशक सार्वजनिक स्थलों पर हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी को ज्यादा तवज्जो देते हैं.
आपकी यह रचना " हिंदी डे" अर्थात 14 सितम्बर को छपे तो कुछ और लोगों तक आवाज जाएगी.
बारामासा पर नयी पोस्ट-"जिन पर वतन को नाज है " अवश्य पढ़ें, जो आपके लिए ही है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
प्रखर अभिव्यक्ति ..... प्रशंसनीय है ....
जरूरी है सोचना भी
सवाल भी बहुत से हैं
रचना खूबसूरती से ये सवाल
उठा रही है !!
अपने घर के लोग ही
गुलाम बना रहे हैं
बहाना विलायती बहू
पर ना जाने क्यों लगा रहे हैं
कुछ तो सोचें घर वाले
एक अरब से ज्यादा
अब हो जा रहे हैं
क्या बात होगी एक का
मुकाबला भी नहीं
कर पा रहे हैं
अपनी नाकामी के झंडे
उसके सर पे जा जा
कर लगा रहे हैं।
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
अपने सही हों तो गैर क्या बिगाडेंगे किसी का ?
सही बात है जी ...
apki nazro me bhale hi ye hindi ki pida ho per meri nazar me ye har us insan ki dastan hai jo apno ke julmo se trust hai...
apki nazro me bhale hi ye hindi ki pida ho per meri nazar me ye har us insan ki dastan hai jo apno ke julmo se trust hai...Radha Rawat
बहुत खूब कहा आपने,,,हिन्दी की दिशा और दशा पर सटीक प्रस्तुति|
मेरा ब्लॉग आपके इंतजार में-
"मन के कोने से..."
हिन्दी की दशा सुधर तो रही है, पर और सुधरने की पूरी गुनाइश है ...... फिर आप जैसे लोग हैं तो वो दिन दूर नहीं ..... !!
आपका हिन्दी के प्रति प्यार अनमोल है ........ शुभकामनायें !!
बेहतरीन अभिव्यक्ति !!
आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे शक्ति प्रदान करता है शव्दों को संगठित करने की
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