Thursday, June 30, 2011

कही मैं दीपक न बन जाऊं

मैं तो अकेले जलता हूँ,
सारी महफ़िल देख रही है,
मैं खुद से ही डरता हूँ,
कहीं मैं दीपक न बन जाऊं !
मेरे जलन की रोशनी,
उनको खार सी चुभती है,
जख्म मुझे मिले मरघट में मैं हूँ,
भला उनकी आँख क्यों दुखती है,
मैं अपनी यादो में आपने,
अरमा डुबो कर जलाता हूँ,
भला कोई हृदय क्यों आकर,
मेरे मरघट पे मंडराता है !
मुझे डर है लोग इल्जाम देंगे,
कहीं मैं दीपक न बन जाऊं !........... रचना राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'












5 comments:

deepti sharma said...

deepak banne se hi to jag mai ujala hota hai

गुड्डोदादी said...

कवि के मन में उजाला
है दूर रवि बेचारा

Tamasha-E-Zindagi said...

बहुत बढ़िया रचना | आनंद आया पढ़कर | बधाई |

कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

Unknown said...

बहुत खूबसूरत रचना
मेरा ब्लॉग आपके स्वागत के इंतज़ार में
स्याही के बूटे

Kailash Sharma said...

सुन्दर रचना...

मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।