बिखरी पड़ी इन राहों को मैं
पहचान लेता हूँ !
कभी - कभी चल के दो कदम
इन से ज्ञान लेता हूँ !
पूरव पशिचमी उत्तर दक्षिण हर ओर शिखर है
ये जान लेता हूँ !
सब पर चलना आसन नहीं है
ये मान लेता हूँ !
बिखरी पड़ी इन राहों को मैं
पहचान लेता हूँ !
7 comments:
sunder rachna
बहुत सुन्दर रचना मित्र .. क्या बात है
आत्म विश्वास से भरपूर ....
"जीवन के इस डगर, मिलती हर कठिनाई है
मगर मैं ठान लेता हूँ !"
बहुत सुन्दर राजेश जी
बहुत सुन्दर रचना!
इसको साझा करने के लिए आभार!
बहुत सुन्दर रचना!
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