Wednesday, May 29, 2013

कन मा भुलअला


द्नकण ल्ग्ज्ञाछीन नान्नी ख्यूटीयोंन  
जुकड़ी मा बांधिक पापी पीड़ा
भुलअला भी त कनकै क भुलअला
आन्ख्यों मा आंसू समाल्य्धिक !  
चुबुणु रल्लू यु याद कु कान्डू
घंतुलियों की तीस कन कै बुझअला
मुखुडी की रौनक त छूपाई भी जांदी
क्यूँकाल्यु सी बाडूली कन मा भुलअला !
द्नकण ल्ग्ज्ञाछीन नान्नी ख्यूटीयोंन 
जुकड़ी मा बांधिक पापी पीड़ा
भुलअला भी त कनकै क भुलअला
आन्ख्यों मा आंसू समाल्य्धिक ! 
शहरु की चकाचोंद मा
बिसरी भी जाला त
जुकुड़ी कु डाम कन कै मीटैला
जग्दु अंगार सी सुल्गुणु रंदू जू
तै आग तै कन मा !
अदाण कु ऊमाल्द सी बार बार अलू
भाड पौंअण सी तुम कन मा बचौला
जुकड़ी मा बांधिक पापी पीड़ा
भुलअला भी त कनकैक भुलअला ! – गीत – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’


  

Thursday, May 23, 2013

मैं नीम ही हूँ


मैं नीम हूँ देखा है मैंने भी
धरती पर उगता जीवन
खिल खिलाती हंसी
और महकता उपवन !
कहूँ क्या मैं किस कदर
आज उलझा हुआ हूँ,
अपने ही कडवेपन से
खुद से कितना खपा हूँ !
अब किसको चाह है मेरी,
मैं खुद ये सोचता हूँ,
साबुन मंजन सब मेरे ही है,
मैं खुद को क्यों कोसता हूँ !
न खेतों पर अब पगडण्डी हैं,
न घर पर चार दिवारी,
न अम्माएं अब कथा सुनती
न मिलती बच्चों की किलकारी !
अब झुरमुट चिड़ियों का लेकर,
वो भोर कहाँ आता है,
थका हारा है हर ओर मानव
पग पग पर ये बिखर जाता है !
खो कर जीवन सहज अपना
रख कर पत्थर हृदय पटल पर
सभ्यता की दौड, दौड़ रहा
हो कर कैद समय रथ पर ! – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’





Thursday, May 16, 2013

माँ


प्रकृति बदल गयी मानव की,
माँ का रूप भी बदल गया !
बेटा वारिस माँ की नजरों में,
बेटी का खुद घोट रही गला !!

माँ की नजरों की ममता,
उस पंछी सी फिरती है !
छोड़ कर नीड अपनी,
खुद उलझन में घिरती है !!

अपनी क्षणिक खुशियों के लिए,
रख लेती पत्थर हृदय पटल पर !
आखिर क्या मिलता है उसको,    
एक माँ से माँ यूँ कत्ल कर !!

माँ की ममता के इस रूप ने,
स्वरुप जहाँ का बदल दिया !
एक माँ ने माँ का ही हक़ लुटा,
स्वयं माँ ने माँ को यूँ प्रस्तुत किया !!  - राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’ 



Sunday, May 5, 2013

एक लौ तो जला के देखो


उजाला खुद बिखरेगा तुम,

ज्योति जला के देखो !

पग पग पर रुकना भी पड़ेगा,

एक कदम बढ़ाके देखो !

बहुत कुचले है सर राह में,

एक बार सर उठा के देखो !

रोकेगा खुद तुम्हें तुम्हारा ‘हौसला’

एक इरादा खुद पे जाता के देखो !

चिंगारियां कई दिखेंगी रौशनी में,

तुम एक लौ तो जला के देखो !

कई चौराह मिलिंगे राह में

तुम एक राह तो बनाके देखो !

आवाजे कई मिलेंगी साथ में

तुम एक आवाज उठा के देखो ! - रचना – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’ 



Monday, April 29, 2013

कनु रूप धारियुं च युन्कू

नजर कुसांगी खोजदी खोजदी,
अपणी गौं की पुंगडीयौ तै
अंखियों मा कांडा सी चुभणा छन्,
देखिक यूँ कुड्डीयौ तै ! 

जौं मंखियों का खातिर,
गौं मा मोटर आयी,
बदलिगे मिजाज तौंकू,
अपणों छोड़ी चली ग्याई !
यूँ साग सग्वाड़ीयों तै
कैं जुकड़ी बिट्टी ठुकरैगे,
क्या उपजी होलू मतिमा तैउंकू,
की निर्भागी रुसांगे !
निर्भागी रुसांगे ! निर्भागी रुसांगे !
निर्भागी रुसांगे ! निर्भागी रुसांगे !   
नजर कुसांगी खोजदी खोजदी,
अपणी गौं की पुंगडीयौ तै !!
अंखियों मा कांडा सी चुभणा छन्,
देखिक यूँ कुड्डीयौ तै ! 

गौं भिट्टी उक्ल्यी कु बाटू,
गौं कु पंधेरों सी नातू
जाणी कख ख्वैग्यायी,
आपणों की बणायीं सगोड़ी टपरान्दी रैगे,
धुर्प्ल्याकु द्वार टूटयूँ उर्ख्याली ख्वैगे !
नजर कुसांगी खोजदी खोजदी,
अपणी गौं की पुंगडीयौ तै
अंखियों मा कांडा सी चुभणा छन्,
देखिक यूँ कुड्डीयौ तै !  - गीत – राजेन्द्र सिंह कुँवर ‘फरियादी’



Monday, March 25, 2013

महादवी वर्मा, आधुनिक काल की मीरा


महादेवी वर्मा जी के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर उनके  साहित्य की कुछ झलकियों और छायावाद  पर प्रकश डाल रही हैं साहित्य की चिर-परिचित लेखिका बीनू भटनागर जी l
             
जन्मदिवस पर श्रद्धासुमन     (26.3.1907-11.9.1987)   
महादेवी जी का जन्म 26 मार्च 1907 को उ.प्र. के फरुक्खाबाद मे हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा जबलपुर म.प्र. मे हुई। उन्होने इलाहाबाद के क्रौसवेट स्कूल मे भी शिक्षा प्राप्त की थी। उनका परिवार प्रगतिशील विचारों वाला था, जहाँ लड़कियों की शिक्षा पर पूरा ध्यान दिया जाता था। वे अपने भाई बहनो मे सबसे बड़ी थीं। उनका बाल विवाह हुआ था। बाल विवाह को वे स्वीकर नहीं कर पाईं। वह अपने माता पिता के साथ ही रहीं। अधिकतर उनका जीवन इलाहाबाद मे ही बीता। आज भी वहाँ उनका बंगला मौजूद है, जो उनके परिवार के सदस्यों के पास है। वहीं पर  एक कमरे मे उन्होने कवियत्री की स्मृतियों को संजोया और सजाया हुआ है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने एम ए.  संस्कृत   मे किया था।  वह प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या और फिर कुलपति बनी। महादेवी जी कवियत्री    और   लेखिका होने के   साथ साथ  चित्रकार, शिक्षाविद , समाज सेविका और स्वतन्त्रता सेनानी भी थी   उनकी मां को भी संस्कृत और हिन्दी का अच्छा ज्ञान था। कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान उनकी मित्र थीं।
महादेवी वर्मा जी छायावद युग के चार मुख्य स्तम्भों मे से एक थी।   सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,’ सुमित्रानन्दन पंत और जयशंकर प्रसाद जी छायावाद के अन्य तीन स्तंभ माने जाते हैं। छायावाद कविता का वह युग था जिसमें व्यक्तिगत अनुभूतियों और संवेगों का सुकोमल चित्रण होता था। इन कविताओं मे हमेशा एक रहस्य सा छुपा होता था। किसी अनजान अज्ञात की छाया की अनुभूति कवि प्रस्तुत करते थे। छायावादी  कविता व्यक्तिगत संवेंगों और कल्पना की प्रस्तुति ही होती थी। भाषा और शब्दों की साज सज्जा का भी बहुत महत्व था। मीरा ने स्वयं को श्री कृष्ण की प्रतिमा को   समर्पित कर दिया था।  महादेवी जी की कविताओं मे  यही संमर्पण, यही आसक्ति किसी अनजान , किसी अनदेखे, किसी अनजाने या किसी छाया के प्रति दिखती है।-
1.मधुर म धुर मेरे दीपक जल !
युगयुग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर

2  जो तुम आ जाते एकबार,
कितनी करुणा कितने संदेश,
पथ मे बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणो का तार तार,
अनुराग भरा उन्माद राग,
आँसू लेते वे पग खगार।

पीड़ा या दर्द छायावादी कविताओं की प्रमुख विशेषता थी  ,मुरझाये हुए फूल की पीड़ा  इन पंक्तियों मे मुखरित हो उठी है।-

कर रहा अठखेलियाँ इतरा सदा उद्यान मे,
अंत का यह दृ्षय आया था कभी क्या सामने  ?
सो रहा  अब तू धरा पर, शुष्क बिखराया हुआ,
गंध कोमलता नहीं ,मुख मंजु मुरझाया हुआ।

छायावादी कवितायें जिस प्रकार कवि की व्यक्तिगत अनुभूति होती हैं, जिनमे कोई तथ्य या विश्लेषण नहीं होता उसी प्रकार पाठक भी अपनी अनुभूति के अनुसार विभिन्न रूपों मे काव्य की व्याख्या कर सकता है। संभवतः कवियत्री ने फूल के माध्यम से अपना कोई दर्द व्यक्त किया हो या फूल के मुरझाने मे उन्हे वृद्धावस्था के अकेलेपन की झलक दिखी हो, जबिकि प्रत्यक्ष रूप मे कविता मे ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। प्रतीकों द्वारा भावनाओं और संवेगों को अप्रत्यक्ष रूप मे प्रस्तुत करना छायावादी कविताओं की विलक्षणता थी।
इसी की  तरह पीड़ा का एक और उदाहरण-
अश्रु से गीला सृजन पल,
विसर्जन पुलक उज्ज्वल,
रही अविराम मिट मिट,
स्वप्न और समीप सी मैं,
धूप सा तन दीप सी मैं।

निम्नलिखित पंक्तियों मे नींद मे सपने मे  आने पर, अज्ञात से मिलन का सौंदर्य भी कवियत्री ने बहुत सुन्दर शब्दों मे संजोया है।-

नींद मे सपना बन अज्ञात,
गुदगुदा जाते हो जब प्राण,
ज्ञात होता हंसने का अर्थ,
तभी पाती हूँ यह जान,
प्रथम किरणों की छूकर छाँह,
मुस्कुराती कलियाँ क्यों प्रात,
समीरण का छूकर चल छोर,
लोटते क्यों हँस हँस कर पात।

मन की उभरती खुशी प्रकृति में भी फूटने की अनुभूति का इतना सुन्दर वर्णन छायावादी कवियों की विशेषता होती है। इसी तरह उनके दुख मे प्रकृति दुखी हो जाती है, तब आँसू और ओस कण में साम्य दृष्टिगत होने लगता है।
अज्ञात प्रिय से मिलने की कामना भी नहीं है इसलियें-

चिरतृप्ति कामनाओं की कर जाती निष्फल जीवन,
रहने दो प्यास अधूरी भरती आँसू के गागर ।
या
मैं नीर भरी दुख की बदली
या
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला।

जैसी प्रस्तुति हों, इनमे भी  अज्ञात के प्रति पूर्ण संमर्पण होने पर भी मिलने की चाह नहीं है। उसके प्रति प्रेम है, आसक्ति है, पर दूर रहकर ही उसे महसूस करने की लगन है।  महादेवी जी की कविताओं मे पीड़ा निरंतर थी, ये किसी दिव्य या अलौकिक के प्रति थी, कल्पना थी या कोई दूसरी दुनियाँ थी, यह तो पढने वालों की अपनी अपनी अनुभूति  पर निर्भर  है।
छायावदी कविताओं की बाद मे कुछ आलोचना भी हुई कि वे केवल रूमानी है, भाषा के सौन्दर्य व सजावट पर अधिक ध्यान है, तथ्य हैं ही नहीं और कल्पना मात्र हैं   इत्यादि।
महादेवी जी  ने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें अवश्य लिखीं पर वह मीरा की तरह यथार्थ से कभी नहीं कटीं। मीरा तो श्रीकृष्ण की ऐसी प्रेम दिवानी हुईं कि उन्होने अपनी गृहस्थी ही त्याग दी, साधु संतों के बीच एकतारा लेकर कृष्ण से  वियोग और आसक्ति के भजन गाती रहीं, कृष्णमय ही हो गईं, परन्तु महादेवी जी अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों से कभी विमुख नहीं हुईं।  उन्होने लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ध्यान दिया। महिलाओं को समाज मे सही स्थान दिलाने के लियें वे सदैव प्रयत्नशील रहीं। वे स्वतन्त्रता सेनानी भी थी और शिक्षिका भी थीं। उनपर बौद्ध चिन्तन का भी प्रभाव था।  छायावदी काव्य उनकी विधा थी, यथार्थ से पलायन नहीं। वे एक कर्मठ महिला थीं।
महादेवी जी को मूलतः कवियत्री के रूप मे जाना जाता है परन्तु उन्होंने गद्य भी काफी लिखा है। मेरे बचपन के दिन मे उनके बचपन की स्मृतियाँ है।   अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखायें,  श्रँखला की कड़िया,   साहित्यकार की आस्था, संकल्पिता  , मेरा परिवार और क्षण उनकी कुछ गद्य पुस्तकें हैं। दीपशिखा हिमालय, नीरजानीहार,  रश्मि,   संध्या और सप्तपर्णा   उनके काव्य  ग्रन्थ हैं।  इसके अतिरक्त समय समय पर उनके काव्य संग्रह भी   प्रकाशित हुए हैं-  गीतपर्व,  महादेवी, परिक्रमा, संधिनी, स्मारिका,  स्मृतिचित्र , नीलांबरा, आत्मिका और यामा मुख्य हैं।
1934 में नीरजा के लियें उन्हे सेक्सेरिया पुरुस्कार हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा दिया गया। 1936 में यामा के लियें जानपीठ पुरुस्कार मिला।   1942 स्मृति रेखाओं के लियें द्विवेदी पदक मिला।   1943 मे मंगला प्रसाद पुरुस्कार प्राप्त हुआ। 1952 मे उत्तर प्रदेष विधान परिषद के लियें मनोनीत हुईं।   1956 मे उन्हे भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। 1969 विक्रम विश्व विद्यालय डी.लिट. की उपाधि मिली। 1988 में उन्हे पद्मविभूषण भी मिला गया।
11   सितम्बर   1987 को हिन्दी साहित्य का यह सितारा विलुप्त हो गया। लेख बीनू भटनागर 






मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।