Monday, June 18, 2012

देखा देखा देखा

देखा देखा देखा तुम, 
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा
कुड़ी छोड्याली
बन्गिन अपणा
इथ्गा पराया
कन बसी तेरी जुकड़ी मा
अभागी या माया
देखा देखा देखा तुम,
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा
कुड़ी छोड्याली
नानि खूटियों का कदम अब
बडगिन अग्वाड़ी
देखा देखा देखा तुम,
फरका पिछाड़ी
यूँ रुपयों की दौड़ मा 

कुड़ी छोड्याली .........गीत - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'





Friday, June 8, 2012

यखुली यखुली


मन्खियों कु डिमडियाट नि
पोथ्लोउन कु छिबडाट नि
यखुली यखुली तुमारी खुद मा
कन यु विचारू अंगण गुठीयार च
धार खाल्यु मा डांडीयौं का बिच
गाड गदरियों मा पन्देरी नि च
पुंगडी उदास होईं सारियों बिच
कख गै यु मन्खी खबर नि च
दूध की अकाल होईं गौं खालु बजार
दारू देख विक्नू यख बानी बानी की धार
स्कुलु मा मास्टर निन पट्टियों मा पटवारी
शहरु मा घुम्णी छन बौंणु की घस्यारी
बकरोंल्यु भी मगन होऊं च
बखरों छोड़ी ठेका जायुं च
हाथ की लाठी खोय्गी अब
देखा बिचाराकु पवा थामियुं च ...........गीतकार -.राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
 






Tuesday, June 5, 2012

नदी


पर्यावरण दिवस पर सिमटे हुए मेरे कुछ शव्द 


नदी 
न बांध मुझे ये इन्सान,
इस मीट्टी के घरोंदे में !
कब तक रोकेगा मुझे भला 
मैं तो चलने के लिए आई हूँ !
मेरे अपने कुछ राह तकते हैं,
देख मुझे यूँ उनके अश्क छलकते हैं !
जीवन देने आई हूँ मैं,
देख वो कैंसे बिलखते हैं !
आ जाऊं अपने पर यदि मैं 
जड़ से मिटाकर ले जाउंगी,
दया भाव कुछ मन में मेरे,
इसलिए दुःख कुछ पि जाउंगी 
पर मेरे थमने और चलने में 
है दोनों में  नुकसान तुझे 
खुछ दूर खड़े तेरे अपने प्यासे 
हा प्यास भुझानी उनकी मुझे !
मैं चलने के लिए आई हूँ 
मेरा चलना ही हितकर है,
मेरे रुकने से तेरा कहाँ 
आगे सोच कहाँ सफ़र है ...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' 


नोट :
आज नदी की दयनीय दशा पर कुछ लिखा है या यूँ कह सकते हैं की  बर्षों से नदी के मन में जो भव विचरण कर रहे थे वो आज बहार निकल गए, मानव से विनीति कर रहे हैं कि हे मानव तू मुझे मत रोक मैं प्रलय की ज्वाला हूँ, वो तो मैं इस लिए चुप बैठी हूँ कि अबोध जन भी मेरी राह में है अन्यथा मैं कब के इस मिटटी कि दीवारों को घसीटती हुयी साथ में ले जाती, अभी भी समय है जाग जा 



Monday, June 4, 2012

मेरा खिलौना

मेरा खिलौना 
मैं शव्दों के खिलौना से खेलता हूँ 
मैं शव्दों में बिखरे अक्षरों को धकेलता हूँ 
मैं नहीं देखता हूँ तूफानी नदियों को 
मैं शव्दों की पंक्तियों में तैरता हूँ !
कलम खुद ही पकती है मेरा हाथ 
कागज खुद ही उड़ता मेरे साथ 
मैं सयाही को घोल भी नहीं पाया 
कि शव्द उछल कर कूद पड़ते हैं !
इनके अचानक आने से 
मन में तूफान उमड़ पड़ता है 
छोड़ कर अपने सरे काम 
मन चंचल चल पड़ता है
मन चंचल चल पड़ता है 
मन चंचल चल पड़ता है ............राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'










Monday, May 28, 2012

इन्सान, इन्सान को खा रहा है


हे जमीं आसमां देख लो जरा 

ये नज़ारा हमें दर्पण दिखा रहा है। 

दो पल दो पल की ख़ुशी के लिए 

इन्सान, इन्सान को खा रहा है !

किताबों के दो शव्द उठा कर 

अपनी हंसी यूँ खिल खिला रहा है। 

चाँद पर पग क्या रखा 

खुद को मसीहा बता रहा है। 

खोद कर अपनी जड़ें ये 

मिटटी में उसे दबा रहा है 

कैंसे यकीं करें खुद पर हम,

जब इन्सान को इन्सान खा रहा है ........रचना -राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
  • नोट : कृपया इन्सान को इन्सान खा रहा का मतलब अन्यथा ना लें ये राजनीति के लिए प्रयोग किया गया है वाकी आप लोग साहित्य के जानकर हो ......... रस, छंद , अलंकार और शव्द शक्ति का कमाल भी समझते हो



मेरी तीन रचनाये विनोद भगवत जी के हिंदी साप्ताहिक 'शव्द दूत' के प्रथम संस्करण में प्रकाशित  

Friday, May 18, 2012

क्या चैदुं त्वे हे पहाड़


पहाडु तैं विकाश चैदुं

जनता तैं हिसाब चैदुं 
इन मरियुं यूँ नेताऊ कु 
युं दलालु तैं ताज चैदुं 
ठेकादारी युंकी खूब चलदी 
रुपयों पर युं तै ब्याज चैदुं 
गरीबु तै गास चैदुं 
बेरोज्गारू तै आस चैदुं
गोरु बाखरों तै घास चैदुं ........राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'



मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।