मत दाता तू कब समझेगा
अंगूठे की आपनी ताकत को
सबसे प्यारा खेल है ये
इस खेल की नजाकत को !
भूले विसरे आ जाते हैं
झुण्ड बनाकर गली -गली में
चहरे इनके खिल उठाते हैं
फूल -फूल में कली-कली में !
नाम पे किसी के मत जाना
झोली में किसी की क्या रखा है
अंगूठे को अपने ये समझना
कोई किसी का सगा नहीं है !
न पार्टी किसी की अपनी होती
कुर्सी का ही खेल है सारा
उस पर मिटते ये 'फिरौती' !
तन मन धन लूट के ये
कुर्सी के गुणगान करते
थे कभी तुम्हारी ही 'रज'
आज तुम्हारे भगवन बनते !! ............रचना राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'