Saturday, July 21, 2012

मुझे आजादी चाहिए


मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए...........रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''



(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)

14 comments:

शिवनाथ कुमार said...

सच कहा आपने ये विलायती बहु क्या दर्द दे सकती है, दर्द तो अपने दे रहे हैं ....
सुंदर ढंग से हिंदी के दर्द को दिखाया है आपने .

शूरवीर रावत said...

हिंदी की पीड़ा को आपने बखूबी बयां किया है..... सचमुच ही हिंदी अपनों के बीच ही परायी हो गयी है. वह तो भला हो हिंदी फिल्मों का जो आज पूरे देश में हिंदी का प्रचार प्रसार हो रहा है. हालांकि यह अलग बात है कि हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियां व निर्माता, निर्देशक सार्वजनिक स्थलों पर हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी को ज्यादा तवज्जो देते हैं.
आपकी यह रचना " हिंदी डे" अर्थात 14 सितम्बर को छपे तो कुछ और लोगों तक आवाज जाएगी.
बारामासा पर नयी पोस्ट-"जिन पर वतन को नाज है " अवश्य पढ़ें, जो आपके लिए ही है.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार के  चर्चा मंच  पर भी होगी!
सूचनार्थ!

udaya veer singh said...

प्रखर अभिव्यक्ति ..... प्रशंसनीय है ....

सुशील कुमार जोशी said...

जरूरी है सोचना भी
सवाल भी बहुत से हैं
रचना खूबसूरती से ये सवाल
उठा रही है !!


अपने घर के लोग ही
गुलाम बना रहे हैं
बहाना विलायती बहू
पर ना जाने क्यों लगा रहे हैं
कुछ तो सोचें घर वाले
एक अरब से ज्यादा
अब हो जा रहे हैं
क्या बात होगी एक का
मुकाबला भी नहीं
कर पा रहे हैं
अपनी नाकामी के झंडे
उसके सर पे जा जा
कर लगा रहे हैं।

संगीता पुरी said...

बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं

अपने सही हों तो गैर क्‍या बिगाडेंगे किसी का ?

Suresh kumar said...

सही बात है जी ...

Anonymous said...

apki nazro me bhale hi ye hindi ki pida ho per meri nazar me ye har us insan ki dastan hai jo apno ke julmo se trust hai...

Anonymous said...

apki nazro me bhale hi ye hindi ki pida ho per meri nazar me ye har us insan ki dastan hai jo apno ke julmo se trust hai...Radha Rawat

मन्टू कुमार said...
This comment has been removed by the author.
मन्टू कुमार said...

बहुत खूब कहा आपने,,,हिन्दी की दिशा और दशा पर सटीक प्रस्तुति|

मेरा ब्लॉग आपके इंतजार में-
"मन के कोने से..."

मुकेश कुमार सिन्हा said...

हिन्दी की दशा सुधर तो रही है, पर और सुधरने की पूरी गुनाइश है ...... फिर आप जैसे लोग हैं तो वो दिन दूर नहीं ..... !!

आपका हिन्दी के प्रति प्यार अनमोल है ........ शुभकामनायें !!

बेहतरीन अभिव्यक्ति !!

राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' said...
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राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' said...

आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे शक्ति प्रदान करता है शव्दों को संगठित करने की

मशरूम च्युं

मशरूम ( च्युं ) मशरूम प्राकृतिक रूप से उत्पन्न एक उपज है। पाहाडी क्षेत्रों में उगने वाले मशरूम।